पर्यावरण की पाठशाला में पत्रकार

  Sudhir Mishra, Yogendra Anand |     November 1, 2023

बॉन कान्फ्रेंस 2017 की बात है। एलायंस आॅफ स्मॉल आईलैंड स्टेट्स (एओसिस) से जुड़े एक देश के बड़े नेता फूट-फूटकर रो रहे थे। एओसिस मतलब छोटे समुद्र द्वीपीय देशों का समूह। आसानी से समझने के लिए मालदीव जैसे देशों का समूह कहा जा सकता है। वहां विकसित और विकासशील देशों के प्रतिनिधियों के बीच बहस छिड़ी हुई थी। यूरोपीय समूह और अमेरिका जैसे देशों के प्रतिनिधियों का दबाव था कि चीन और भारत जैसे देश अपनी जिम्मेदारी समझें जो बहुत ज्यादा कार्बन का उत्सर्जन कर रहे हैं। दूसरी तरफ भारत-चीन जैसे देशों के कूटनीतिज्ञ विकसित मुल्कों को अपनी ऐतिहासिक जिम्मेदारी याद दिला रहे थे। किस तरह से औद्योगिक क्रांति के दौरान इन देशों ने कारखाने लगाकर खुद को विकसित किया। जो एक समय यूरोपीय देशों के लिए क्रांति थी, आज पर्यावरण की हत्या का औजार है।

एक पत्रकार के तौर पर मैं 2009 से इसी तमाशे को लगातार देख रहा था। खीज मुझे भी बहुत होती थी, लेकिन एओसिस देशों के नेताओं के दर्द ने मुझे अहसास कराया कि परेशानी वास्तव में कितनी बड़ी है। एक आइलैंड देश के रो रहे नेता का कहना था कि दुनिया के बाकी मुल्कों की बहसबाजी में तो उनका देश डूब जाएगा। इसलिए दुनिया को बचाने के लिए जो भी किया जाना है, उसे जल्दी किया जाए क्योंकि सबसे पहली मार उनके ऊपर पड़ने वाली है।


इस उदाहरण को मैंने यूनाइटेड नेशन के जलवायु सम्मेलन के माहौल को समझाने के लिए रखा था। सच कहूं तो 2009 में जब मैं पहली बार सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायनरमेंट (सीएसई) के साथ कोपेनहेगन सम्मेलन कवर करने गया तो यह पेशेगत गतिविधि थी। पर्यावरण के प्रति वैसी संवेदनशीलता और समझ मेरे भीतर नहीं थी, जैसी आज है। सम्मेलन को कवर करने से ज्यादा उत्साह विदेश यात्रा को लेकर था। दुनिया को देखने-समझने का था। इसका शायद एक कारण यह भी था कि बतौर पत्रकार मैं कई विषयों पर कार्य करता था। पर्यावरण मेरे लिए केवल एक विषय भर था।



इसीलिए कोपेनहेगन में जब शुरुआती दो-तीन दिन में कुछ पल्ले न पड़ा तो मैंने वहां के सेक्स वर्कर्स की समस्याओं से जुड़ी एक खबर को जलवायु सम्मेलन से जोड़कर भेज दिया। सेक्स वर्कर्स को तब काम करने से रोक दिया गया था, इसलिए उन्होंने होटलों में जाकर लोगों को मुफ्त सेवा देने का एलान किया था। यह खबर ठीक से छपी। अगले दिन अंग्रेजी मीडिया के साथियों ने उसे ‘फालो’ भी किया पर जलवायु सम्मेलन कवर करने गए पत्रकार का फोकस एरिया कुछ और होना चाहिए था। यह बात मुझे शुरुआत में ही समझ आ गई। हम उस पीढ़ी के हैं जिसे पर्यावरण को जीवन के बुनियादी विषय के तौर पर देखने के लिए समझाया नहीं गया था। तब यह समझ नहीं थी कि यह वैसा ही विषय है, जैसा एक शिशु गर्भ में अपनी मां की नाल के साथ जुड़ा रहता है। यूनाइटेड नेशन के सम्मेलन को कैसे कवर किया जाना चाहिए, इसकी समझ विकसित करने की जरूरत महसूस हुई। ड्राफ्ट कैसे तैयार होते हैं, उनकी कोड भाषाओं का मतलब क्या होता है, यह सब मेरी समझ से बाहर था। वैसे भी अंग्रेजी पर कमजोर पकड़ के कारण मैं दस्तावेजों को अच्छी तरह समझ नहीं पाता था। फिर पर्यावरण से जुड़ी अच्छी रिपोर्टिंग कैसे हो?

इसके लिए मैंने सहारा लिया सीएसई और भारत से गए दूसरी संस्थाओं के ऐसे विशेषज्ञों का, जिन्हें हिंदी का भी ज्ञान हो। साथ ही लगातार पर्यावरण बीट करने वाले इंग्लिश मीडिया के साथी भी बहुत मददगार साबित हुए। उनसे मदद ली और बढ़िया रिपोर्ट तैयार कीं। पहले कोपनहेगन, फिर कैनकुन, डरबन, दोहा, पेरिस और आखिर में 2017 में मैंने बॉन कान्फ्रेंस कवर की। लगातार कवरेज करते-करते मेरी अपनी समझ भी विकसित होती चली गई। फिर मुझे क्लाइमेट से जुड़े मुद्दों की रिपोर्टिंग आसान लगने लगी।

ऊपरी तौर पर देखें तो इस दौरान कूटनीतिक तमाशे ज्यादा होते थे। देशों के राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री और पर्यावरण मंत्रियों से लेकर ब्यूरोक्रेट, विपक्ष के नेता, सोशल एक्टिविस्ट, और एनजीओ के लोग वहां होते थे और सबके अपने-अपने एजेंडे थे। इस दौरान एक समान हितों से जुड़े देशों के अपने-अपने समूह, मिलकर काम करते हैं, जैसे जी-7, जी-20, बेसिक, ओपेक और एओसिस। साथ ही सभी देश अपनी-अपनी जरूरतों के हिसाब से व्यक्तिगत तौर पर अपने प्रस्ताव पेश करते हैं। करीब पंद्रह दिनों तक सब पर चर्चा होती है और फिर एक संयुक्त ड्राफ्ट हर साल पारित होता है, जिसमें आगे का एजंडा तय होता है। अंतिम प्रस्ताव में हमेशा इतने किंतु-परंतु होते हैं कि ज्यादा सहमति के बिंदु ठीक से लागू नहीं हो पाते।

बात करें ग्रीन क्लाइमेट फंड, गरीब रिस्क वाले देशों की मदद, और नई तकनीक के हस्तांतरण की तो हर देश का अपना हित सर्वोच्च होता है। सत्ता की राजनीति भी इससे जुड़ी होती है। इसलिए अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बनने वाला प्रस्ताव तैयार करना जंग सरीखा है। इस बात को अगर अपने देश के हितों के हिसाब से समझें तो भारत पर बहुत दबाव है कि वह अपनी कोयला परियोजनाएं बंद करे। रिन्यूवल एनर्जी का इस्तेमाल लगातार बढ़ रहा है पर भारत अपनी स्थानीय जरूरतों के कारण चाह कर भी कोयले के इस्तेमाल को पूरी तरह खत्म नहीं कर सकता। यह भी सच है कि क्लाइमेट चेंज हो रहा है और उसके खतरे लगातार बढ़ रहे हैं। जिन खबरों को मैं पंद्रह साल पहले आशंकाओं के तौर पर लिखता था, वह आज सामने घटित होती दिख रही हैं। हिमालय और समुद्र तटीय इलाकों में हालात लगातार खराब हुए हैं।

बारिश का चक्र बदल रहा है। गर्मी बढ़ रही है और फसलों पर इसके दुष्प्रभाव साफ तौर पर दिखने लगे हैं। इस बीच यातायाता और ऊर्जा के क्षेत्र में उल्लेखनीय बदलाव हुए हैं। जीवाश्म ईंधन पर निर्भरता कम की जा रही है। रिन्यूवल एनर्जी का इस्तेमाल बढ़ रहा है। विद्युत चलित वाहन आ रहे हैं। इन सबके साथ नई चुनौतियां भी सामने आ रही हैं। समुद्र द्वीपीय देशों के डूबने का खतरा बढ़ ही रहा है। हिमालय से लेकर हिंद महासागर तक हमारे देश की चुनौतियां बढ़ती जा रही हैं। साथ ही दुनिया की भी।

बतौर पत्रकार मैंने इस दौरान जो कुछ सीखा, उसे रोजमर्रा की पत्रकारिता में इस्तेमाल करने की कोशिश की। तकरीबन हर मुद्दा पर्यावरण पत्रकारिता से जुड़ा है। सड़क के जाम से लेकर अवैध निर्माण तक। कूड़े के निस्तारण से नदियों की गंदगी तक। पर्यावरण परिवर्तन का मुद्दा हर व्यक्ति का मुद्दा होना चाहिए। मैंने जलवायु सम्मेलनों में जो सीखा, उसके प्रति लोगों को संवेदनशील बनाने की कोशिश की।

यह लेख का संपादन अनिल अश्वनी शर्मा, एसोसिएट संपादक, डाउन टू अर्थ, द्वारा किया गाया है।

About the Author

Resident Editor, New Delhi, Navbharat Times

Illustrator, Art & Design, Centre for Science and Environment, New Delhi

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